कोरे पन्नों को अपने अल्फाजों से सींच रहा हूं
खुद का मसला खुद ही निपटाना सीख रहा हूं
किसी का साथ होना रह नहीं गया अब जरूरी
मैं अब खुद के कुर्ब ही रहकर जीना सीख रहा हूं
मैं मस्तमौला, अबोध हूं या बस नादान हूं
मैं हर मुखौटे के पीछे छुपे चेहरे से अंजान हूं
अब तृप्त हो गया हूं हर उन आघात से
अब सबसे परे मेरे लिए बस एक मैं हूं जुस्तजू तो अनेकों हैं मेरे अंतर्मन के कोने में
किसी के साथ रहने की, किसी के काम आने की
पर आदत नहीं रही मौका परस्ती का लिहाज करने की
मैं हूं चौकन्ना अजीज के लिबास में छिपे अजीब इंसान से
मैं अब अपने में मस्त जीना सीख रहा हूं अब सबसे परे मेरे लिए बस एक मैं हूं ।।
बस मैं
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