पर अगर होता मैं तुम्हारा अपना
क्या जरूरत पड़ती मुझे ये कहने की,
मुझपर थोड़ा रहम करो मैं भी तो तुम्हारा अपना हू,
अगर गैर नह होता,
तो करते ही क्यू मेरे साथ सलूक ऐसा?
जिम्मेदारियां तो उस स्कूल के बस्ते की तरह है,
जो अक्सर एक बच्चे को अपने बोझ के तले मिटा देता है
अगर कहने की सोचूं अपनी आप बीती,
तो अक्सर अपने आप को बेबस ही पाता हु
अगर जानने की कोशिश की होती तुमने तो
क्या पता बता देता
आखिर मैं भी तो तुम्हारा हूं।