आज यूँही गज़ुरते हुए, मेरी नज़र एक डायरी पर पङी।
बहुत परुानी सी थी, मगर अपनी सी लग रही थी।
सोचा दिल की तसल्ली के लि ए एक बार जाकर देख ही लूँ।
हाॅं वो डायरी मेरी थी।
कुछ अर्से पहलेचोरी हो गई थी,
मगर हाॅं वो डायरी मेरी थी।
वो डायरी मेरेलि ए कुछ इस तरह खास थी,
कि सूरज की किरणों से शरूु होकर, जब चाॅंद की चाॅंदनी ढलती थी,
मेरी कलम से मेरे दिल की बात,
उसके पन्नों पर उतरती थी।
वो डायरी मेरे लिए कुछ इस तरह खास थी।
वो डायरी कुछ इस तरह खास थी,
कि उसकी तारीफ में बस ये कहा जा सकता था,
कि उसे पढ़ते हुए मुझे पढ़ा जा सकता था।
वो डायरी मेरे लिए कुछ इस तरह खास थी।
उसे देखते हुए मन में चाहत सी हुई,
कि एक बार पास जाकर, उसके पन्नेपलट कर देख ,लूँ
कि क्या आज भी वो पन्ने मौजूद हैँ या फाड़ दिए गए हैं जिन पर मनैं यादें लिखीं थी,
ना मौजूद भी हैँ तो सकुून ही होगा,
कि हां वो दिखी थी।
दिल मे बस चाहत सी हुई,
कि एक बार देख लूँ कि वो गुलाब की पंखुड़ियां अब भी उसमे हैँ या उसने शायद फेंक दी होंगी,
और आखिरी पन्ने पर बने उस चित्र को भी मिटाने की कोशिश की तो होगी।
बहुत चाहत थी मन मे कि एक बार देख लूँ
मनैं कदम बढ़ाए ही थे कि वो आकर डायरी लेजाने लगा,
और मै बस देखता रहा।
अफसोस बस ये था,
कि मनैं कभी उस पर अपना नाम ना लिखना चाहा,
उसका खुद का नाम रखा था,
किस हक़ से कहता कि वो मेरी है,
अब उसने उस पर अपना नाम लिखा था।
किस हक़ से कहता कि वो मेरी है।
अब दिल को बस मानना ही होगा,
कि वो डायरी अब चोरी हो चुकी है।
बात बस ये है कि गर वो मेरी होती,
तो उसकी ये हालत ना होती।
हर पन्ना उसका साफ होता,
उस पर यूँ धूल ना जमी होती।
गर वो मेरी होती तो उसकी ये हालत ना होती।