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तुम्हें देखकर जो
सूखी थी कलियां जो ,
आज बिन बरसात के भी
डालियों पर सजी है वो।

तुम्हें देखकर जो
बंजर थी धरा जहां
आज हरियाली बरस रही है
उन कण-कण में वहां

तुम्हें देख कर जो
रूठे थे मेघ के घन
आज वह भी दावत दे रहे
अतिथि है बाग बगीचे उपवन

एक बच्चा कोने में खड़ा है
तुम्हें यूं ही निहार रहा है
शायद रोटी मांग रहा होगा
भूख से कहार रहा है


तुम्हें देखकर जो
चेहरे पर मुस्कान आई नहीं
तू यह लालिमा सब व्यर्थ है
मुस्कान अगर छाई नहीं

– बिंदेश कुमार झा

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